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मेरे प्रभु तुम कहा बसे हो स्वर्गधाम में
खोज रहा हूँ गतिमय होकर हर विराम में
मै आशाकुल भ्रमण कर रहा हर मंदिर में
कभी ढूड़ता कृष्ण रूप में कभी राम में
मेरे प्रभु तुम कहा बसे हो स्वर्गधाम में
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दिग दिगंत मन भटक रहा है अब दिग भ्रम है
कर्षित चिंतन मनन कर रहा कैषा श्रम है
चिर कालिक संघर्ष मार्ग में तिमिर आवरण
अवसादों कि घोर रात्रि छायी विहान में
मेरे प्रभु तुम कहा बसे हो स्वर्गधाम में
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शांत क्रांति अस्फुट अशांति अहरह दुःख दारुण
व्यग्र चित्त अवकाश रिक्त पीड़ा किस कारण
अन्धकार का चीत्कार उत्पीडित तन मन
आर्तनाद व्याकुलता छायी त्राहि माम में
मेरे प्रभु तुम कहा बसे हो स्वर्गधाम में
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तुम्हे हृदय कि आकुलता को हरना होगा
प्रेम सूत्र का आरोहित स्वर भरना होगा
समदर्शी समरूप दृष्टि मेरी हो जाये
एक सूत्र’ दीपक’ ज्योतित हो राम काम में
मेरे प्रभु तुम कहा बसे हो स्वर्गधाम में
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