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सरस्वति का नाद रूप- संगीत

ओपन हार्ट
ओपन हार्ट
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Thyagaraja Aradhana 1
आदि काल से समस्त व्यावहारिक व अव्यावहारिक विषयों को लिपिबद्ध किया गया है.ज्योतिष,दर्शन,साँख्य के समान ही संगीत भी वर्गीकृत किया गया है.जब विषय सर्वमान्य सिद्धांतों के द्वारा दूसरे अन्य विषयों के साथ अंतः सम्बन्ध स्थापित करता है तो वह व्यापक हो जाता है.व्यापक विषय का विश्लेशणात्मक वर्गीकरण व क्रमबद्ध मूल्यांकन शास्त्र कहलाता है.किसी भी विषय का शास्त्रीय स्वरुप विषय की वैज्ञानिकता का निर्धारण करता है.शास्त्रीय मत विषय से अनभिज्ञ व्यक्ति को विषय का सुव्यवस्थित परिचय प्रदान करते है जिससे नव व्यक्ति विषय की सैद्धान्तिक व प्रयोगात्मक धारणा से अपने आप को परिचत कराता है.
देश काल पारिस्थित के अनुसार विषय का स्वरुप विस्तृत व परवर्तित होता चला गया और नये मतों से मूल शास्त्रीय सिद्धांतों का परिवर्तन किये बिना शास्त्रों में धनात्मक वृद्धि हुयी.
प्रत्येक विषय के अपने मूल सिद्धांत होते हैं जिनके होने से उस विषय का शास्त्र निर्मित होता है.संगीत भी आदि काल से दृढ़ शास्त्रीय आधार लिए हुये लोक रंजन कर रहा है.संगीत शास्त्र में दूसरी शताब्दी से सोलहवीं शताब्दी तक विभिन्न ग्रन्थ लिखे गये.इन सभी ग्रन्थों में संगीत सामग्री सम्बन्धी विषयान्तर तो पाया गया किन्तु कुछ न कुछ आधारभूत तथ्य ज्यों के त्यों बने रहें.
प्राचीन वैदिक काल में संगीत का सर्वप्रथम उपयोग सामगान में दिखता है.उद्दात,अनुदात,स्वरित स्वरों से सुशोभित गेय साम देवताओं की प्रसन्नता हेतु प्रचलित कर्मकाण्ड था.
संगीत को दो भागों में विभक्त किया गया था,मार्गी और देशी संगीत.मार्गी संगीत वह संगीत था जो स्वर,ग्राम,जाति,गीतक,आलाप आदि क्रिया से बद्ध था.एवं जो गीत,वाद्य,नृत्य विभिन्न स्थानों में लोगों की रूचि के अनुसार आता था वह देशी गान था.ऐसा प्रतीत होता है कि देशी संगीत की अपेक्षा मार्गी संगीत अधिक शास्त्रीय था.देशी संगीत मार्गी संगीत की अपेक्षा अधिक व्यावहारिक होकर आज हमारे समक्ष प्रस्तुत है.
संगीत का प्रमुख भाव माधुर्य(melody) है न कि शुष्क नीरस सिद्धांत.यह कान से प्रवेश करके ह्रदय पर आघात करता है,परन्तु मष्तिष्क से संगीत श्रवण शास्त्रीय पक्षों की तो पुष्ट करता है,फिर वे चाहें मधुर हों या कर्कश.वह शक्ति जिसके माध्यम से ह्रदयी वीणा को स्पंदित कर के माधुर्य व आनन्द से भर दिया जाये संगीत कहलाती है.
सांगीतिक अशास्त्रीय चिन्तन और मौलिकता में एक सूक्ष्म भेद है.जब हम किसी शास्त्र को सिरे से नकार कर बिलकुल नवीन चिन्तन प्रस्तुत करते है तो वह अशास्त्रीय कहलाता है किन्तु जब शास्त्रीय मूलभूत सिद्धांतों को ध्यान में रखकर हम नवीनता लाते है तो वह मौलिकता कहलाती है.
संगीत में मौलिकता नितान्त आवश्यक है जिससे हम नवीन कल्पना को आधारभूत ढाचा प्रदानं कर के शास्त्रीय कर सके.मौलिक चिन्तन तात्कालिक समय,पारिस्थित से उत्पन्न हुआ एक विचार होता है जिसे प्रायोगिक कसौटी पर परखकर हमें देखना होता है कि यह तथ्य कितना शास्त्रीय है.
यदा कदा नवीन चिन्तन सर्वथा नयी धारणा प्रस्तुत करता है ऐसे में यह देखना होगा कि क्या यह अशास्त्रीय होते हुये भी मधुर है.यदि है,तो वहीं हमें शास्त्रीय वर्गीकरण को एक नया स्वरुप देने की आवश्यकता है.
शास्त्रीय पूर्वाग्रह मौलिकता का परम शत्रु है क्योंकि ऐसे में हम सदैव नवीन चिन्तन को उसी दृष्टिकोण से देख पाते है जिससे हम पूर्व परिचित हैं तथा हमें नवीनता की उपयोगिता का पता ही नहीं चल पाता है.
भारतीय संगीत निश्चय ही बेहद कर्णप्रिय एवं आनदंपूर्ण है किन्तु क्या हम पाश्चात्य संतुलन(hormony) को उसके महत्व के अनुसार सुन पाते है?वस्तुतः दूसरे अपरचित,प्रचिलित तथ्यों के प्रति पारदर्शी दृष्टिकोण मौलिक चिन्तन में सहायक है.
पाश्चात्य स्वर संगतियाँ आखिर क्यों बहुतायत को प्रभावित करती रही है.या अन्य किसी भी देश की कर्णप्रिय ध्वनियाँ क्यों शताब्दियों से जन मानस को आन्दोलित करती रही है.
निश्चय ही अन्यान्य देशों की स्वर माधुर्य संगतियाँ प्रशंसनीय है उनके श्रवण से हम अपने संगीत में भी मौलिक परिवर्तन लाकर उसे ज्यादा व्यापक,प्रयोगात्मक व मौलिक कर सकते है.
मौलिकता का अर्थ विचित्रता से नहीं है क्योंकि संगीत जैसी हृदयस्पर्शी कला में विचित्रता तभी सुन्दर लगती है जब वह स्वल्प हो.
शास्त्रीयता हमें सीमित करने के लिए नही है वरन् उसकी उपयोगिता शास्त्रों के प्रति सम्यक प्रयोगवादी दृष्टिकोण बनाये रखने में सहायक है.शास्त्रीय संगीत हमें सांगीतिक अनुशासन हमें प्रदान करता है.यदि हम शास्त्रीय और मौलिक पक्षों का सम्यक अध्ययन कर के नवीनता की सृष्टि करे तो यह अधिक लोक व्यावहारिक और विस्तृत प्रतीत होगा.ऐसा संगीत निश्चय ही ‘रक्ति’ को सार्थक करता है.

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